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Friday, March 4, 2011

चला परदेस !

ये मौसम नहीं आएगा वहां. .
न पंछी कोई गायेगा वहां. .

दोस्तों से भी बढ़ जाएँगी दूरियां. .

   माँ के हाथों की बनी पूरियां. . भला तू कहाँ पायेगा वहां. .
   ये मौसम नहीं आएगा वहां. . न पंछी कोई गायेगा वहां. .


पर सूरज यही तो निकलता होगा. .
हर शाम को फिर जो ढलता होगा. .

चलो ज़िन्दगी! चल के देखे जरा. .
हैं कैसे वे लोग , दिल कितना बड़ा. . !!

Monday, January 25, 2010

Hum Bure Hi Sahi...

तुमने बुरा जो कह दिया तो हम बुरे ही सही...
अच्छा बनने का कोई अब इरादा भी नहीं...

रिश्ते निभने  हैं तो अब निभ जायेंगे खुद से ही...
पर निभाने का पहले से अब कोई वादा नहीं...

खुद को बदल तो रहे थे हम तेरे मुताबिक ही..
वक़्त ही माँगा था बस और कुछ ज्यादा नहीं..

तुम गए डर मगर ये ठोकरे तो लगनी ही थी..
रास्ता इश्क का कभी होता सीधा-साधा नहीं...

तुम्हे जाना था छोड़ कर ये तेरी मर्जी ही थी...
के खुद की ख्वाहिशें कभी तुझपे लादा नहीं...

तुमने बुरा जो कह दिया तो हम बुरे ही सही...


Thursday, November 12, 2009

Paheli...!!


















मैं जब भी अकेला होता हूँ...
मैं सिसक सिसक कर रोता हूँ...
तेरी याद तब आने लगती है...
जागता हूँ सोता हूँ....

रख कर सामने तस्वीर तेरी....
मैं सोचता हूँ तू होती मेरी....
आज भी हर दुआ मैं तुझे मांगता हूँ...
तेरे बिन मेरी दुनिया लगे ठहरी....

कैसे भूल जाऊँ मैं -


तेरा हँसना तेरा रोना... कभी रख के सर काँधे पे सोना...
तेरा डांटना....तेरा समझाना....तेरे रूठने पे तुझे मनाना...
दूर होकर भी तेरा पास होना....तुझसे बात करके ही सोना...
..
कैसे भूल जाऊँ मैं -
मेरी हरकतों पर तेरा मुस्काना ....कभी नाराज़ होकर दूर जाकर बैठना....
तेरे नखरे..पल में अकड़े...और कभी कल की एक बात पर आज भर ऐंठना...
मैं चाहता हूँ वे दिन तेरी यादों में भी बस जायें कहीं....
अफ़सोस मुझे इस बात का है मैने कुछ ऐसा किया भी नही...

किसी और के संग
तेरा मुस्काना
....
मुझसे न मिलने का
तेरा
बहाना...
कोई तुझको,, छु ले गर तो ....
आसाँ नही ...इसे ( दिल को ) मनाना...

तुम थी तो ज़िन्दगी , मुझको लगती थी हँसी...
तुम नही तो आज ये ज़िन्दगी मुझपर हँसी....मुझपर हँसी..
पर तेरे बिन ही अब जीना है मुझे ...
तेरे बिन अब जीने लगा हूँ मैं....
तुम छोड़ गए तनहा राहों पर....
एक बार भी न पुछा तुमने ....
एक बार भी न सोचा तुमने....

तेरे आज भी मुस्कुराने पर वो फूल तो खिलते होंगे न...
तेरे सपनो में कभी कभी हम बी तो मिलते होंगे न....
भूल मुझे तुम कभी तो नही जाओगी न...
मेरे जाने से पहले...एक बार मिलने तो आओगी न...

तुम मिल के हुए जुदा....तुम हो गये गुमशुदा ...
क्यों पल भर के इन रिश्तों में ढेर सारी ख्वाइशें पलती हैं....
इस वक्त की मर्जी के आगे कहाँ किसी की चलती है...
क्यों ज़िन्दगी हमसे खेलती है....क्यों खुशियाँ हमेशा छलती है....



आज ख़ुद को ढूँढने की कोशिश मैं....
ख़ुद को उतना ही खोता हूँ....
मैं जब भी अकेला होता हूँ.......

Tuesday, November 10, 2009

पन्ना 70....







 






The last day in Tagore. (dedicated to my roomies & frns)



आज का आसमां भी क्यूं बैर लग रहा है...
आज हर शख्स भी अपना क्यों गैर लग रहा है…
मेरे दिल की पीर आंखों का नीर बन क जो बहा है...
सुनो इन दीवारों ने भी कुछ तो कहा है...



हमें छोड़ चले किस ओर
गूंजती आवाजें खिड़कियाँ दरवाजे... 

सब यहाँ तनहा हैं... सब यहाँ तनहा हैं...
अब दोबारा कब तुमारा हमको होगा दर्श...
राह तके खिड़कियाँ झरोके ,ये पौधे और फर्श...
जब हम हँसते थे तो ये फूल हंसा करते थे....
जब हम रोते थे तो ये पल-पल मरा करते थे...
ये चबूतरे कोयल कबुतरें जब दिखती थी छत पर....
लिख रहा हूँ आज आखिरी मैं पन्ना सत्तर...


वो मेज वो कुर्सी वो कटोरी …
उसमे रह गई जो खीर थोडी… कहती :-
आकर अपना हक तो लो...
हमको ज़रा तुम चख तो लो...
कहती है धरा कहता है गगन
कहता है आज ये सूना मन ...
भला ये कैसी मजबूरी है...
जहाँ जाना भी जरुरी है...
के पत्तियां भी झुक गयीं हैं आज…
और ये हवा भी रुक गयी है आज
पर गम-ऐ-जुदाई को दबाये...
वो आज भी मुस्कुराए ,तना हुआ तरुवर…
लिख रहा हूँ आज आखिरी में पन्ना सत्तर…


यहीं अपने सपनो का संसार…
हर दिन यहाँ लगते थे त्यौहार
ये शामें और ये कोलाहल…
कहाँ मिलेंगे हमको कल ??
ये हवा और मिटटी की खुसबू…
किस्से कहानियाँ और गुफ्तगू
ले जा रहा हूँ आज सारी यादें बटोरकर…
लिख रहा हूँ आज आखिरी में पन्ना सत्तर…


जी भर के आज देख लेने दे...
मत पोछ इन्हे अब बहने दे...
बहना तो आगे भी हैं इन्हे...
फ़िर पोछन बुलावेंगे किन्हें ?
मत छेड़ तू ये आदत मेरी...

अब जा भी… होती होगी देरी...
पर जाना जरा देखकर , जरा संभलकर...
लिख रहा हूँ आज आखिरी में पन्ना सत्तर…


ब चुकी हूँ में के अब तन्हाई भी कहती है
ख़ुद की धड़कन भी अब कानो को सुनाई देती है...
सूनी पड़ी हैं गलियां ...के वीरान हुआ परिसर
एहसास न होने पाया के कब पुरा हुआ सफर...