Tuesday, January 31, 2017

बेतरतीब - IV

१. गुजरी वो मेरे पास से लहराती हुई फ़िज़ा सी यूँ
  फिर भी हुई मुझको भला सांस लेने में तकलीफ क्यों?


२. मैं सोचता हूँ आज से मौजूं-ए-ग़ज़ल क्या रखूं,
  Objectification के इल्जाम से आज डरा करता हूँ |
  झील सी आँखें न कहूँ मैं जुल्फ रेशमी न लिखूं,
  अब छिप के फैज़ फ़राज़ को मैं आज पढ़ा करता हूँ ||



३. ज़िन्दगी की दौड़-धूप में जहाँ जरा ठहराव है 
  वहीँ दूर से कुछ कदम पर बसता मेरा गाँव है ||


४. दर्द जब हद से बढ़ा , हम शेर में कहने लगे ।
   हमदर्दी चाही थी जरा, सब दाद ही देने लगे || 


५. कागज़ कलम, चाए गरम, संग शौक और तन्हाई भी
     पीछे के दरवाजे से फिर धूप भी अंदर आई थी 
     लफ़्ज़ों पर जो बर्फ जमी उसने तब पिघलाई थी 
    हमने लिखी गज़ल थी एक, उसने ग़ज़ल निभाई भी ।
   

3 comments:

  1. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" बुधवार 01 फरवरी 2017 को लिंक की गई है.... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  2. जीवन के रंग रचना में झलक रहे हैं. सुन्दर. बधाई.

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