Not amongst the best of my creations.. but still this sweet little poem keeps a special place in my heart..this is the first ever poem i wrote...and today i found it accidently.. here it goes...
रूह काँप सी गयी थी मेरी...
जब हुई रात और भी अँधेरी....
एक दिन को गया था छत पर अपने...
पता नहीं क्यूँ डर लगे पनपने...
मुझे हुआ ऐसा प्रतीत...
छू कर गयी जो मुझे पवन शीत...
मुझे हुआ ऐसा प्रतीत -
मैं खड़ा हूँ रण-भूमि मैं..तरकश में न हैं बाण मेरे
या मुझ marterazzi को पड़ी हो head-butt zenedin zidane से रे...
या मैं कैदी कोठर में और चारो तरफ लगे हो पहरे...
या जैसे एक आशिक ने खाए हो जब जब जख्म गहरे...
मुझे हुआ ऐसा प्रतीत ...
छू कर गयी तो जो पवन शीत...
मुझे हुआ ऐसा प्रतीत...
मैं वीराने छत पर जब देख रहा था तारे...
एक आवाज़ से गिर पड़ा मैं खौफ क मारे...
एक प्रती बिम्ब भी मुझे दिखी..
और तभी लगे पेड़ भी हिलने...
शुक्र है! वो मेरी मम्मी थी..
अब डर का पारा लगा था गिरने... :-D
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