Saturday, October 24, 2015

बेतरतीब - III

दिमाग तनिक नाराज़ है कि मैं पूरे दिन उसे खपाता हूँ ।
दिल नाराज़ है कि उसे मैं शाम नहीं दे नहीं पाता हूँ ।
ले दे के एक रात बची तब दोनों के शिकवे सुलटाता हूँ ।


शोख़ी, हया, हुस्न, अदा, नज़ाकत जैसे जालिम
इश्क के इशारे पर दिलों के कारवां लूटा किये . .

इश्क के दरिया के किनारे यूँ टहला करते हुए देखा . .
एक हुजूम डूबे जा रहा था,पर कोई भी नहीं चिल्ला रहा था !!

इश्क को बदनाम न कर हार जाने के बाद में ,
इश्क फिर शह-मात देगा, नए सर-नकाब में |

गर्म रुखसार पर उसके हथेली हमने तापी तो ,
बारिश सा छुया जैसे तो पत्तों जैसी कांपी वो . .

एक ऐसी ही शाम को, हुई पहली मुलाकात ;
यूँ जा रहा था दिन, उधर से आ रही थी रात
उस चाँद से चेहरे का नज़रों ने किया दीदार ,
पिघलने लगा दिल उधर अफ़ाक में आफताब |

तड़के ही सुबह लिहाफ से बाहर निकल आये "लफ्ज़"
कांट-छांट के "बहर" बराबर, अरसे बाद नहाये "लफ्ज़"
शायद किसी ग़ज़ल से आज कहीं मिलने का इरादा है
बन-ठन के "मीर के शेर" सा, आज बड़ा इतराये "लफ्ज़" ।

2 comments:

  1. Masterpiece...Har panktiyan mano majboor kar rehi ho Gehrayiion main sochne par...Umda..Aisi hi behtareen Betarteeb likhte rahaye kavi sahab

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  2. सूरज वाला अच्छा लगा

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