दिमाग तनिक नाराज़ है कि मैं पूरे दिन उसे खपाता हूँ ।
दिल नाराज़ है कि उसे मैं शाम नहीं दे नहीं पाता हूँ ।
ले दे के एक रात बची तब दोनों के शिकवे सुलटाता हूँ ।
शोख़ी, हया, हुस्न, अदा, नज़ाकत जैसे जालिम
दिल नाराज़ है कि उसे मैं शाम नहीं दे नहीं पाता हूँ ।
ले दे के एक रात बची तब दोनों के शिकवे सुलटाता हूँ ।
शोख़ी, हया, हुस्न, अदा, नज़ाकत जैसे जालिम
इश्क के इशारे पर दिलों के कारवां लूटा किये . .
इश्क के दरिया के किनारे यूँ टहला करते हुए देखा . .
एक हुजूम डूबे जा रहा था,पर कोई भी नहीं चिल्ला रहा था !!
इश्क को बदनाम न कर हार जाने के बाद में ,
इश्क फिर शह-मात देगा, नए सर-नकाब में |
गर्म रुखसार पर उसके हथेली हमने तापी तो ,
बारिश सा छुया जैसे तो पत्तों जैसी कांपी वो . .
एक ऐसी ही शाम को, हुई पहली मुलाकात ;
यूँ जा रहा था दिन, उधर से आ रही थी रात
उस चाँद से चेहरे का नज़रों ने किया दीदार ,
पिघलने लगा दिल उधर अफ़ाक में आफताब |
तड़के ही सुबह लिहाफ से बाहर निकल आये "लफ्ज़"
कांट-छांट के "बहर" बराबर, अरसे बाद नहाये "लफ्ज़"
शायद किसी ग़ज़ल से आज कहीं मिलने का इरादा है
बन-ठन के "मीर के शेर" सा, आज बड़ा इतराये "लफ्ज़" ।
Masterpiece...Har panktiyan mano majboor kar rehi ho Gehrayiion main sochne par...Umda..Aisi hi behtareen Betarteeb likhte rahaye kavi sahab
ReplyDeleteसूरज वाला अच्छा लगा
ReplyDelete