Sunday, March 7, 2010

Fir ye kaisa marz hai..!!

Story of a looser...looser just 'coz he had nobody to blame at for his condition... :(

ज़िन्दगी के  किस्से  सुनाऊं तो क्या रखा है ज़िन्दगी में...

देश के न काम आया , नाम एक नाकाम पाया...जन्म ही लिया था क्यों मैने इस सदी में...
मैं रहा करता था निग्रोच.. ( निग्रोच - बरगद कि भांति तना हुआ) 
के एक दिन जो कत्फोड़ा मार गया चोंच...
खोखला  कर गया मुझे...
मेरी सोच पर किया खरोच ...
बेहोश (बेहोश यहाँ एक कालांतर को दर्शा  रहा है) होने के बाद जो उठा तो...
अपने को कई कोष पीछे छोड़ चूका था,कई राह कई गलियां मोड़ चुका  था...
कभी पाया करता था अपने को अपनों के साथ...
खुशनुमा माहौल था... करते साथ में थे बात...
वो शीतल हवा के झोंके...और वो धुंधलाती भोर...
कानो क पर्दों को छेड़ते वो पंची क शोर...
आसमा पर जमी निगाहें पर जमी पे थे अपने पाँव..
वो सरसों क खेत और पीपर क पेड़ों की  छाओं...
माँ कभी ओखिली में दाल छांटती थी तो...
मेरी हरकतों पे कभी मुझे डांटती थी वो...
अपनी छोटी बहाना को पलने में झुलाता था...
और माँ के हाथों से ही मैं निवाले खाता था...
पर अब गया कहाँ .. वो सारा जहाँ...
 हरही खेत हुए बंजर...हम घर से हुए बेघर...
माँ तंग आके दुनिया से ..हमें संग छोड़ गयी मुनिया क...
संग मुनिया क मैं बेबस था भटक रहा दर दर...था भटक रहा दर-दर...
भूक से शूख रही थी मेरी बेहेन.. खाया न था बीते कई महीने...
दे दो सब्जी रोटी थोड़ी...बदले  मैं  दूंगा बहा पसीने...
मैने तो किया था बस एक सौदा.. पर उस दरिन्दे ने था उसको रौंदा....
चारो पहर मैं दूना बोझ लाद दोड़ता रहा..
सर्द रांतों में जमी ही बिस्तर आसमां ओढ़ता रहा...
पर...
उधर भूक से शूख गयी मेरी बेहेन...
हद हुई जुल्मो कि.. अब नहीं होता सेहन ..

उसके बिखरे बाल थे... और सूज चुकी आँखें थी...
वो आखिरी बार जब पाई पर कांखी थी.. 
जब चीख क भैया वो मुझको अपने पास बुलाई थी...
तब सो गयी खुली ही आँखों से.. बस उम्र तो उसकी ढाई थी..

वो लकड़ियाँ राख बन जो जमी पे ढेह  रही थी 
मेरे दिल कि पीर मेरे आँखों का नीर बन बह रही थी...
वो राख और वो राखी मुझसे मानो कह रही थी...
तू "अकेला" अब तेरे पास तेरी बेहेन भी नहीं थी...
मैं रोया चिल्लाया... पर क्या पाया...!!
इस दानवी दुनिया ने चीन ली मुझसे मेरी बेहेन...
और यहीं से था हुआ एक बेबस भाई का दहन..
- शंख क संघोष  का सन्देश... आतंक का ओढ़े लबादा उठा अब  है क्लेश...-
वो आग बदले कि.. बनी प्यास जो गले की..
तो लाली से भी अब प्रार्णघाती  लपटें निकलेगी...
घर का चिराग जब बन पड़ेगा आग...
तप मंद प्रवाह हवा भी अपना रूख बदलेगी...

जिन जिन ने दागी गोलियां मेरी इस खुशहाल ज़िन्दगी मैं...
जिसने दिया धकेल आज मुझको इस निरीह नदी में...
ये तलवार.. बड़ी खूंखार.. बेकरार... टपकती लार...
अजनबी था मैं कल... मेरे लिए पूरा शहर ...
पर आज जाकर काँप उठा .. जब छाया है मेरा कहर...
-तभी आकाश वाणी होती है... और स्यवं भगवन सामने आ खड़े होते हैं...-
ठहरो..!!
तुने जो अब तक दो-चार लाशें गिराई हैं...
कोई किसी कि बेहेन है उसमे कोई किसी का भाई है...
अनगिनत भाइयों की बन जा जाना बानगी...
मार के औ काट के उनकी बेहेने सगी...
मानता हूँ.. भाई होने का तेरा कुछ फ़र्ज़ है...
पर इस देश कि मिट्टी का भी तुमपर कुछ क़र्ज़ है...
इंसान-:  ऐ खुदा..!! तू ही बता क्या करूँ...फिर ये कैसा मर्ज़ है...!!



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