Friday, February 14, 2014

बेतरतीब - II


मत छेड़ना इस राख को . . इसमें दबे  ज़ज्बात हैं . .
ज़ज्बात जाग गए गर तो , आग फिर लग जाएगी ।

उसके ख्यालों के क़र्ज़ मे दबे जाते हैं रोज़ाना,
मोहब्बत! पूरे ब्याज़ के साथ उधार लेता है |
मेरी साँसें मेरी धड़कन सिर्फ अब मेरी न रही
मोहब्बत! मिलकियत पर फ़क़त हिस्सेदार देता है ।

इश्क़ की अदालत मैं हमें तजुर्बा-ए-वक़ालत नही. .
मोद्दै इतना दिलकश ए 'कुश', कुछ पूछने की हालत नही | 
   
कुछ करीब आना तेरा, दिल इस कदर मशगूल हुआ 
कुछ वक़्त भर के लिए वो आज धड़कना भूल गया ।

एक झलक भर आपकी आंच सी लगती हमें,
हम कलेजा ताप लिया करते फिर बातों बातों में ।


2 comments:

  1. सार्थक प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (27-12-2014) को "वास्तविक भारत 'रत्नों' की पहचान जरुरी" (चर्चा अंक-1840) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    ReplyDelete