झील की ख़ामोशी में खुद की धड़कन सुन पाता हूँ,
फिर लफ़्ज़ों को बुनता हूँ और उनकी धुन बनाता हूँ|
आज बादलों में खींच डाला हमने भी चेहरा तुम्हारा,
और बाग़ में फिर लॆट कर मैं गीत कोई सा गाता हूँ|
काश्मीर की वादियों में जमी बर्फ जैसी नर्म सी,
कुल्लड़ वाली चाय की तरह मीठी भी तू गरम भी,
उर्दू के हर लफ्ज़ जैसी तुझमे है सरगर्मियाँ,
उर्दू के हर लफ्ज़ जैसी तुझमे है सरगर्मियाँ,
ठंडी हवा के झोकों जैसी थोड़ी सी बेशरम भी|
ये पतली-पतली राहें मुड़ा करती हैं लटक-मटक कर,
मेरी गली से जब गुज़रा करती थी तू जैसे इतरा कर,
अपने लड़कपन की हरकत आज याद आगयी एक तब,
सूरज को पीछा करते देखा दरख्तों से छिप-छिप कर|
मेरी गली से जब गुज़रा करती थी तू जैसे इतरा कर,
अपने लड़कपन की हरकत आज याद आगयी एक तब,
सूरज को पीछा करते देखा दरख्तों से छिप-छिप कर|
तेज़ नदियों में जब लहर दर लहरें उठा करती है,
जैसे के तेरी करवटों से बिस्तर पे सिलवटें पड़ती है|
अच्छा है :)
ReplyDeleteShukriya :)
Deleteबहुत खूब ... काश्मीर कि वादियों को प्रेम कि महक से रोशन कर दिया ...
ReplyDeleteलाजवाब ...
thank you uncle :)
Deletejab aap log appreciate karte ho to hum logon ko motivation mila karti hai kavitayen padhnte-likhte rehne ki!
I have always loved the similes and analogies in your compositions.. Good one!
ReplyDeleteKya baat back in form
ReplyDelete:D :)
Deletebahut badhiya,,,last para toh superb:) thumbs up
ReplyDeleteOMG... bahut khoob shivi...dil khush ho gaya..last para ne to jaan le li...
ReplyDeletegreat job..keep it up! :)
nice hai :)
ReplyDeleteSpecially, loved this :
उर्दू के हर लफ्ज़ जैसी तुझमे है सरगर्मियाँ ,
सर्द हवा के झोकों जैसी थोड़ी सी बेशरम भी . .
Nice one...touched by last para.. :)
ReplyDeletebahut khhobbbb.... bahutt khoobb....
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